(गोर्की शतबर्ष की उपलक्ष में)
मूल कविता–आइ
कवि— हीरेन भट्टाचार्य।
अनुवाद– गायत्री देवी बरठाकुर।
तुम्हारे साथ आखिरी मुलाकात
मुझे याद नहीं।
आज अचानक
तुम्हारी आँचल से ढक कर लाया गया
गुप्त ईश्तिहार को बातें
फसल काटने बाली औरत को तेज दरांती की तरह
मुझे सचेत कर गया।
अकाल की आग में जला हुआ
श्रमिक की हात को तांबा से बनीं हथोड़े को
प्रचण्ड शब्द ने मुझे याद करा दिया : तेरी आई तेरे सामने।
इतनें दिनों से मैं ख़ुद में ही मगन था आई !
आज तुम मिल गयी
तांबा को तीक्ष्णता और उगती शस्य के बीच।
मेरी आई
जानें कब से आ कर स्थित है
मेरे सामने।
* माँ।